ठाकुर हृदयकी आवाज़ सुनते हैं, प्रेम से आवाज़ दो तो ठाकुर दौड़े चले आयेंगें।
माया भगवान की पहरेदार है जो भगवान से मिलने नहीं देती, जैसे विश्वासपात्र सेविका किसी मेहमान के आने पर वह सबसे पहले दौड़कर आती है और किसी अंजान व्यक्ति को अपने घरवालों से मिलने नहीं देती| इसी प्रकार माया भी भगवान से मिलने में बाधक है
परंतु यदि हम भगवान को सच्चे मन से पुकारें तो भगवान स्वयं ही इस माया रूपी पहरेदार को हमारे और अपने बीच से हटा देंगे |
“ठाकुर हृदयकी आवाज़ सुनते हैं, प्रेम से आवाज़ दो तो ठाकुर दौड़े चले आयेंगें।”
हमको अपनी सम्पूर्ण शक्ति से हर पल, हर जगह भगवान का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये।
तृतीय श्लोक में भगवान ने ब्रह्माजी को “जगत सत्ता” (तत्व) के बारे में बताया| भगवान् ही स्वयं इस जगत (संसार) के रूप में विद्यमान हैं। भगवान से अलग जगत का कोई अस्तित्त्व है ही नहीं।
“भगवान की सत्ता (अस्तित्व) से ही जगत की सत्ता का (अस्तित्व) है”
संसार परिवर्तनशील रास्ता है | जिसके द्वारा जगत (संसार ) में लोग आते - जाते रहते हैं, परंतु जगत (संसार) ज्यों का त्यों रहता है|
हमारे पिता, हमारे दादा, परदादा उनके पिता इत्यादि इस रास्ते रूपी संसार से आकर चले भी गये और हम भी चले जायेंगे। लेकिन ये संसार ऐसे का ऐसा ही है।
चतुर्थ श्लोक में भगवान ने “भगवत् प्राप्ति का साधन” बताया। भगवान ने समझाया कि
आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टि) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्त्व है |
इन चार श्लोकों – “आत्मा, माया, जगत और भगवान को प्राप्त करने की विधि” से पता चलता है कि यह संसार ब्रह्ममय है अर्थात भगवान के अलावा यहां कुछ भी नही है|
तात्विक दृष्टि से जगत मिथ्या है| अतः जगत का विचार अधिक नहीं किया गया है परंतु सृष्टि के कर्ता का विचार बार–बार किया गया है|
ब्रह्माजी की समझ में आ गया कि हम भगवान के ही अंश हैं| मेरे अन्दर तो आत्मा के रूप में भगवान स्वयं बैठे हैं| जब मैं हूं ही नहीं तो मुझे अपने होने का अहंकार भी नहीं हो सकता| सब ब्रह्ममय है।
हरे कृष्ण!
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