Tuesday, 5 February 2019

प्रभुकृपा का अर्थ यह नहीं, कि जीवन में कभी दुःख ही न आए।


हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

प्रभुकृपा का अर्थ यह नहीं,
कि जीवन में कभी दुःख ही न आए।

दुःख में भी आप दुखी न हों,
वो घड़ी कब बीत जाए,
आप को पता ही न चले...
यही है  "प्रभुकृपा"।

जिसके हरी हैं सारथि, निश्चय उसकी जीत,जिस मन हरी बसें, उस मन प्रीत ही प्रीत.

संत, महापुरुष, भगवत भक्तगण बताते हैं; कि जब आप बस या ट्रेन में बिना टिकट सफर करते हो तो कितना डर,भय, चिंता, घबराहट होती है । कहीं कोई टिकट चेक करने वाला ना आ जाये। सारा सफ़र चिंता और बेचैनी में जाता है ।

             और जो टिकट ले के सफ़र करता है ।

 वो खुशी-खुशी सफर करता है ।
           उसे कोई चिंता, घबराहट या परेशानी नही होती। उसका सफर खुशी-खुशी कट जाता है।
     
आखिर यह टिकट क्या है?

टिकट है; हरे कृष्णानाम !

         इस देहः में जो हरे-कृषंणानाम वाली टिकट लेके जीवन जीता है वो खुशी-खुशी जी लेता है ।

जो बिना हरिनाम के जीवन व्यतीत करता है उस व्यक्ति का सारा जीवन चिंता, घबराहट, बेचैनी और परेशानीयों से ही कटता है ।

इसीलिए संत महापुरुष कहते हैं-:
इक नाम सतगुरु कोलो मांग लै..
फिर तैनु कुछ मंगन दी लोड ही नई पैनी !

जप लो, यही मौका है.

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

आंनद पाओगे वरना अंत काल पछताओगे

भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा !!

पुर्व भारत उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है।

पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है।
इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।
रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अंत में गरुण ध्वज पर या नंदीघोष नाम के रथ पर भगवान श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं।

तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये लगे हैं।
बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन, जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। संध्या तक ये तीनों ही रथ मंदिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मंदिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा मंदिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है।
भगवान जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है।

भगवान जगन्नाथ, बलदेव एवं माता सुभद्रा के अद्भुत स्वरूप का वर्णन...

श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ श्रीमती राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि श्रीबलराम और देवी सुभद्रा होते हैं।
श्री भगवान का ये लीला द्वारिका से सम्बंधित है । कुछ इस प्रकार है.

 द्वारिका में भगवान कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में, अचानक श्री वृंदावन और भक्तमति गोपीयों का नाम लेने लगे। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृंदावन में श्री राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है।
श्रीमती राधा जी की भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।

माता रोहिणी के श्री भगवान के वृंदावन लीला कथामृत शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अंत:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अंत:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। भगवान का सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया।
यह भगवान की आन्तरंग शक्ति, गोपीश्रेष्ठ भक्तिमती, माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था।

अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्ववत हो गए। नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। श्रीभगवान ने तथास्तु कह दिया।

स्वप्न में आदेशानुसार राजा इंद्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे कृष्ण मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही, वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर भगवान श्रीजगन्नाथ जी का मंदिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या हम मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली।

महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, ‘व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।’ आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट विग्रह पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मंदिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं।
भगवान जगन्नाथ की जय  !

क्यों पड़ते है श्री जगन्नाथ भगवान प्रत्येक वर्ष बीमार.?
उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ पूरी में एक भक्त रहते थे , श्री माधव दास जी  अकेले रहते थे, कोई संसार से इनका लेना देना नही।

अकेले बैठे बैठे भजन किया करते थे, नित्य प्रति श्री जगन्नाथ प्रभु का दर्शन करते थे और उन्ही को अपना सखा मानते थे, प्रभु के साथ खेलते थे।

प्रभु इनके साथ अनेक लीलाए किया करते थे | प्रभु इनको चोरी करना भी सिखाते थे भक्त माधव दास जी अपनी मस्ती में मग्न रहते थे |

एक बार माधव दास जी को अतिसार( उलटी – दस्त ) का रोग हो गया। वह इतने दुर्बल हो गए कि उठ-बैठ नहीं सकते थे, पर जब तक इनसे बना ये अपना कार्य स्वयं करते थे और सेवा किसी से लेते भी नही थे।

कोई कहे महाराजजी हम कर दे आपकी सेवा तो कहते नही मेरे तो एक जगन्नाथ ही है वही मेरी रक्षा करेंगे । ऐसी दशा में जब उनका रोग बढ़ गया वो उठने बेठने में भी असमर्थ हो गये ,

तब श्री जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर इनके घर पहुचे और माधवदासजी को कहा की हम आपकी सेवा कर दे।

भक्तो के लिए अपने क्या क्या नही किया…
क्यूंकि उनका इतना रोग बढ़ गया था की उन्हें पता भी नही चलता था की कब मल मूत्र त्याग देते थे। वस्त्र गंदे हो जाते थे।

उन वस्त्रो को जगन्नाथ भगवान अपने हाथो से साफ करते थे, उनके पुरे शरीर को साफ करते थे, उनको स्वच्छ करते थे।

कोई अपना भी इतनी सेवा नही कर सके, जितनी जगन्नाथ भगवान ने भक्त माधव दास जी की करी है।

भक्त माधव दास जी पर प्रभु का स्नेह.

जब माधवदासजी को होश आया,तब उन्होंने तुरंत पहचान लीया की यह तो मेरे प्रभु ही हैं।
एक दिन श्री माधवदासजी ने पूछ लिया प्रभु से –

प्रभु आप तो त्रिभुवन के मालिक हो, स्वामी हो, आप मेरी सेवा कर रहे हो आप चाहते तो मेरा ये रोग भी तो दूर कर सकते थे, रोग दूर कर देते तो ये सब करना नही पड़ता”

ठाकुरजी कहते हा देखो माधव! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता,इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की। जो प्रारब्द्ध होता है उसे तो भोगना ही पड़ता है।

अगर उसको काटोगे तो इस जन्म में नही पर उसको भोगने के लिए फिर तुम्हे अगला जन्म लेना पड़ेगा और मै नही चाहता की मेरे भक्त को ज़रा से प्रारब्द्ध के कारण अगला जन्म फिर लेना पड़े,

 इसीलिए मैंने तुम्हारी सेवा की लेकिन अगर फिर भी तुम कह रहे हो तो भक्त की बात भी नही टाल सकता

भक्तो के सहायक बन उनको प्रारब्द्ध के दुखो से, कष्टों से सहज ही पार कर देते है प्रभु
अब तुम्हारे प्रारब्द्ध में ये 15 दिन का रोग और बचा है, इसलिए 15 दिन का रोग तू मुझे दे दे
15 दिन का वो रोग जगन्नाथ प्रभु ने माधवदास जी से ले लिया

आज भी इसलिए जगन्नाथ भगवान होते है बीमार.

वो तो हो गयी तब की बात पर भक्त वत्सलता देखो आज भी वर्ष में एक बार जगन्नाथ भगवान को स्नान कराया जाता है ( जिसे स्नान यात्रा कहते है )

स्नान यात्रा करने के बाद हर साल 15 दिन के लिए जगन्नाथ भगवान आज भी बीमार पड़ते है।

15 दिन के लिए मंदिर बंद कर दिया जाता है  कभी भी जगनाथ भगवान की रसोई बंद नही होती पर इन 15 दिन के लिए उनकी रसोई बंद कर दी जाती है।

 भगवान को 56 भोग नही खिलाया जाता , ( बीमार हो तो परहेज़ तो रखना पड़ेगा )

प्रभु को लगाया जाता है काढ़ो का भोग.........

15 दिन जगन्नाथ भगवान को काढ़ो का भोग लगता है | इस दौरान भगवान को आयुर्वेदिक काढ़े का भोग लगाया जाता है। जगन्नाथ धाम मंदिर में तो भगवान की बीमारी की जांच करने के लिए हर दिन वैद्य भी आते हैं।

काढ़े के अलावा फलों का रस भी दिया जाता है। वहीं रोज शीतल लेप भी लगया जाता है। बीमार के दौरान उन्हें फलों का रस, छेना का भोग लगाया जाता है और रात में सोने से पहले मीठा दूध अर्पित किया जाता है।

भगवान जगन्नाथ बीमार हो गए है और अब 15दिनों तक आराम करेंगे। आराम के लिए 15 दिन तक मंदिरों पट भी बंद कर दिए जाते है और उनकी सेवा की जाती है। ताकि वे जल्दी ठीक हो जाएं।

जिस दिन वे पूरी तरह से ठीक होते है उस दिन जगन्नाथ यात्रा निकलती है, जिसके दर्शन हेतु असंख्य भक्त उमड़ते है।

खुद पे तकलीफ ले कर अपने भक्तो का जीवन सुखमयी बनाये। ऐसे तो सिर्फ मेरे भगवान ही हो सकते है ।।

जय हो प्रभुपाद
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण दंडवत प्रणाम और नमस्कार हरे कृष्ण

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